कन्हैयालाल डंडरियाल जी की पुण्यतिथि (2 जून) पर विशेष
पहाड़ का सच
पौड़ी। कन्हैयालाल डंडरियाल जी का जन्म पौड़ी जनपद के मवालस्यूं पट्टी के नैली गांव में 11 नवंबर, 1933 में हुआ था. वे बीस वर्ष की अवस्था में रोजगार की तलाश में दिल्ली आ गये थे। उन्होंने 16 वर्ष की अवस्था से ही चूते-चप्पल पहनना छोड़ दिया था। दिल्ली आकर वे बिड़ला मिल में नौकरी करने लगे. बाद में मिल बंद होने से वे बेरोजगार हो गये। उन्होंने परिवार के भरण-पोषण के लिये चाय बेचने का काम शुरू कर दिया। कन्हैयालाल डंडरियाल कंधें में चाय की पैकेटों का थैला लटकाये घर-घर नंगे पैर जाते थे। गर्मी, बरसात या सर्दी हर मौसम में वे अपने काम को बड़ी शिद्दत के साथ करते मिलते। उनके अंदर समाज को जानने-समझने और गहरी संवेदनाओं के साथ आमजन की पीड़ा को रखने की चेतना भी इन्हीं संघर्षो से आई थी।
उल्यरि जिकुड़ी
दादु म्यरि उल्यरि जिकुड़ी. दादु मैं परबतू को वासी.. दादु म्यरु सौंजड्या च कप्फू. दादु म्यरि गैल्या चा हिलांसी.. झम.
दादु छौं नागिण्यूं संग्यत्या. अटुगु मि घ्वीड़ का दगड़ा.. दादु रौं रौंत्यला बगू मां. खेलु मि गंगा का बगड़ा.. झम.
छायो मैं बा जि को पियारो. छायो मैं मां जि को लाडुलो.. छौ म्यरा गौलि को हंसूलो. दादु रै बौ जि को भिटूलो.. झम.
भोरि मिन अदमिरी अंज्वली. पेइ चा छुबडुल्यूं को पाणी.. दादु ल्है अधितु समोटी. रै ग्यऊं तुड़तुड़ी मंगारी.. झम.
गढ़वाली भाषा और साहित्य को एक उच्च मुकाम तक पहुंचाने में कन्हैयालाल डंडरियाल का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। गढ़वाल के प्रति उनकी अगाथ श्रद्धा और प्रतिबद्धता को उनके पूरे साहित्य में देखा जा सकता है। यह समर्पण उनके लिखने में ही नहीं, बल्कि व्यवहार में भी था. उन्होंने व्यक्तिगत स्वार्थ, राग-द्वेष और बिना किसी पूर्वाग्रह के जीवन मूल्यों, जीवन दृष्टि, व्यथा-वेदना, जनसरोकार, हर्ष, पीड़ा, संघर्षों को केन्द्र में रखकर उत्कृष्ट, उदात्त और जीवंत साहित्य की रचना की। कई बार वह व्यग्ंय के रूप में भी उभरकर सामने आती है। उनके लेखन में सामयिक चेतना व दूरदृष्टि भी साफ दिखाई देती है। उनके लेखन की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वह पाठकों को बहुत गहरे तक प्रभावित करता है। बहुत संवेदनाओं के साथ. वह उन रचनाओं को अपने आसपास में ढूंढता है। उसे वह मिलती भी है. अपने इर्द-गिर्द या खुद अपने में. उनके लेखन में जीवन के सच को पहचानने और स्वीकारने की चेष्टा दिखाई देती है. वे आमजन की बहुत बारीक कथ्य और भाव को खूबसूरती के साथ व्यक्त करते थे।
उनकी दो कवितायेँ :
ब्यारी
भाई जी ने मैखुणि कि ब्वारी क्या खुज्याई है कपाळी हुंच्याई है मेरी थुंथरी थिचाई है अफ्फु को त भात , मैकू झंगोरा पकाती है मेरा बांठा बाडिम वा दबळी बि नही चलाती है मैंने माँगा मांड उसने आंखी भ्वंराई हैं गालुन्द मेरा बंसतुळी से परछोणी खल्याई हैं की मैंने कम्पलेंट भाई जी के पास में ही मेरी पेशी झट बौऊ के इजलास में भौत गन्ग्जाये हम अपणी सफाई में हार गए केस कोई मिली नहीं गवाही है। चचराने लगी वह मैंने कहा शट अप बिलकी चट शांक्युं फर ह्वेगे मैकू टपटप खैंची मैंने भिटुलि , उसने चुप्पा झम्मडाई है। पड़ी गे ऐड़ाट मेरो , वह भि डगड्याइ है। चढी तब नडाक मुझे , बौंळी चट बिटाई है। करता हूं मै सळपट तैने क्या चिताई है। बर्बराई चट , वा , उसने मुछ्याळी उठाई है भागे लुकणो वैबरी तिखन्डी खुज्याई है।
रिटारिट
पैलि त मि सिरफ़ सुणदो छयो पर अब दयख़णु छौं कि दुन्या रिटणि च दुन्यअ चौछडि जून रिटणि च जिकुड़ी चौछ्ड़ी गाणि रिटणि च नेतौं चौछ्ड़ी नीति रिटणि च भर्ती दफ्तरम फालतू रिटणा छिन फूलूं फर म्वारी रिटणि च पुंगड्यू ब्वारी रिटणि च कीली फर बाछी रिटणि च बजारुम पैसा रिटणु च आंख्युं अगनै जैंगण रिटणि च मि द्यख़णु छौं रिटदी असहाय जिन्दगी तैं रिटदा आस्था विश्वास तैं हर प्राणी क चौछडि रिटदि मौत तैं।