
पहाड़ का सच, देहरादून
आज भी उत्तराखंड के सैकड़ों गांव ऐसे हैं, जहां मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं। मूलभूत सुविधाओं की बात करें तो सड़क, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी सुविधाएं जो उन्हें मिलनी चाहिए, यहां हमेशा ही उनका अभाव रहा है। आए दिन स्वास्थ्य की लचर व्यवस्था का असर पर्वतीय क्षेत्रों में देखा जा सकता है, आज भी बीमार को मुख्य सड़क तक लाने को डंडी कंडी का सहारा लेना पड़ता है। इसके अलावा पलायन, रोजगार भी उत्तराखंड में बड़े चुनावी मुद्दे हैं। पेयजल, ट्रैफिक, भ्रष्टाचार, विकास ये सभी मुद्दे चुनावों में छाये रहे हैं. मगर इस बार चुनावी साल से ठीक पहले प्रदेश की सियासी फिजाओं में फ्री बिजली के वादों की गूंज सुनाई दी, जिसके कारण असल मुद्दे गायब हो गए।
रोजगार के अवसर नहीं होने के कारण पहाड़ी इलाकों से लोगों का पलायन भी उत्तराखंड में शुरूआत से चुनाव का बड़ा मुद्दा रहा। पलायन यहां इतना बड़ा मुद्दा है कि सरकार ने इसके लिए पलायन आयोग तक गठित किया है। आयोग की रिपोर्ट में दावा किया गया है कि अलग राज्य बनने के बाद उत्तराखंड से करीब 60 प्रतिशत आबादी गावं छोड़ चुकी है। इतने गंभीर आंकड़े सामने आने के बाद भी पलायन इन चुनावों में मुद्दों से दूर रहा.वहीं राज्य में बदहाल स्वास्थ्य सेवाओं को लेकर भी आवाज बुलंद की गई। कोरोनाकाल हो या उससे पहले का समय, प्रदेश में बड़ी संख्या में लोग स्वास्थ्य सेवाओं की कमी से जूझते रहे हैं। तमाम अस्पतालों में डॉक्टर नहीं हैं, जिससे लोगों को इलाज के लिए भटकना पड़ता है।
राज्य में आजतक हुये चुनावों में राजनीतिक दलों के एजेंडे में कभी पर्यावरण मुद्दा रहा ही नहीं। जबकि नैसर्गिक सुंदरता से परिपूर्ण उत्तराखंड देश के पर्यावरण को संजोये रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। जिसके कारण इसकी भूमिका यहां ज्यादा हो जाती है. राज्य के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का 71.05 प्रतिशत वन भू-भाग है। प्रकृति की ओर से वन रूपी अमूल्य निधि यहां की सभ्यता, संस्कृति व समृद्धि का प्रतीक है। राज्य में पर्यावरण का मतलब पर्यटन के जरिये यहां की आर्थिकी से भी जुड़ा है। दूसरा पहलू ये भी है कि पर्यावरण और विकास के मध्य सामंजस्य का अभाव प्रदेश पर भारी पड़ रहा है. इस परिदृश्य के बीच राजनीतिक दलों के बीच पर्यावरण जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे की अनदेखी को किसी भी दशा में ठीक नहीं कहा जा सकता.देवस्थानम बोर्ड, चारधाम यात्रा, प्राकृतिक आपदा से निपटने की तैयारी, नए उद्योग लगाने और मैदानी इलाकों में खेती वगैरह के स्थानीय मुद्दे भी चुनाव से पहले प्रदेश की सियासत को खूब गर्माते रहे, मगर चुनाव आते-आते ये सभी मुद्दे ठंडे बस्ते में डाल दिये गये, या फिर इन्हें मैनेज कर लिया गया. जिसके कारण इन मुद्दों का शोर चुनावों में नहीं सुनाई दिया।
अब जनता की नजरें कल आने वाले परिणामों की और लगी हुई है, कल तय हो जायेगा कि सरकार किसकी बनेगी। आने वाली सरकार क्या पुराने ढर्रे पर ही चलेगी कि या कुछ नया बदलाव करेगी ?
