पहाड़ का सच के लिए ए के डंडरियाल
उत्तराखंड में जंगलों की आग इतनी भीषण हो चुकी है कि नैनीताल में एयरफोर्स की एमआई-17 हेलीकॉप्टर की मदद लेनी पड़ी और एनडीआरएफ की 41 सदस्यीय टुकड़ी भी मैदान में उतार दी गई। अभी तक घटनाओं में साढे़ सात सौ से अधिक हेक्टेयर एरिया आग की चपेट में आ चुका है। बावजूद इसके जंगल लगातार धधक रहे हैं। सवाल उठता है कि आखिर जंबो जेट फौज वाले वन विभाग जंगल बचाने में क्यों असफल हो जाता है ?
क्यों आग पर काबू नहीं पाया जा सका है? क्या ये है इसकी बड़ी वजह ?
गर्मी के दिनों में किसी भी जंगल में आग का लगना कोई बहुत आश्चर्यजनक बात नहीं है, लेकिन, कुछ राज्यों में ये आग बेकाबू हो जाती है। उत्तराखण्ड उनमें से एक है। इन दिनों राज्य के जंगलों में आग लगने की घटना ने भयावह रूप ले लिया है। आखिर इसपर काबू क्यों नहीं पाया जा सका है? इसकी बड़ी वजह है कि जंगल की प्रकृति. उत्तराखण्ड के जंगलों में चीड़ के पेड़ बहुतायत में हैं। अग्रेजों ने इन्हें तारकोल बनाने के लिए पूरे राज्य में लगाया था। इनकी जितनी उपयोगिता है, उतना ही इनसे नुकसान. चीड़ के पेड़ में लीसा नामक एक तरल पदार्थ निकलता है। इनकी पत्तियों में भी तेल का अंश बहुत ज्यादा होता है। इन्हें स्थानीय भाषा में पीरूल बोलते हैं।
पत्तियों में तेल की मात्रा ज्यादा होने के कारण न सिर्फ ये जल्दी आग पकड़ती हैं, बल्कि आग लगने की सूरत में ये भयावह भी होती है। पत्तियों से उठी आग पेड़ों को भी अपनी चपेट में ले लेती है।
उत्तराखंड वन विभाग के आंकड़ों से पता चलता है कि पिछले साल नवंबर से राज्य भर में जंगल की आग की कम से कम 606 घटनाएं सामने आई हैं, जिससे 735.815 हेक्टेयर क्षेत्र प्रभावित हुआ है। जंगलों में आग लगने की 220 घटनाएं गढ़वाल और 333 कुमाऊं मंडल की हैं। 53 घटनाएं वन्य जीव क्षेत्र की हैं। उत्तराखंड में पिछले दस सालों में जंगलों में आग लगने की 14 हजार से ज्यादा घटनाएं हो चुकी हैं। जिसमें 23 हजार हेक्टेयर से अधिक क्षेत्रफल में वन संपदा प्रभावित हुई है।
बीते दस सालों में वनाग्नि की घटनाओं में 17 लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी। जबकि 74 लोग घायल हो गए थे। उत्तराखंड में साल 2014 से साल 2023 के बीच वनाग्नि की सबसे ज्यादा घटनाएं साल 2021 में हुई थी। साल 2021 में प्रदेशभर में जंगल में आग की 2183 घटनाएं सामने आईं थी। जिसमें 3,943 हेक्टेयर क्षेत्रफल में वन संपदा प्रभावित हुई थी।
लॉकडाउन में हुई थी आग की घटनाओं में रिकॉर्ड कमी
2020 में कोरोना वायरस के कारण लगे लॉकडाउन के चलते जंगलों में इंसानी गतिविधियां कम रहीं और इसलिए जंगलों में लगी आग की घटनाओं में भी रिकॉर्ड कमी देखने को मिली थी। साल वनाग्नि की घटनाएं रिकॉर्ड कम, मात्र 135 हुईं और उनसे सिर्फ़ 172.69 हेक्टेयर वन क्षेत्र प्रभावित हुआ। हालांकि उस साल भी 2 लोगों की मौत हो गई थी और एक घायल हुआ था।
राज्य में कम बारिश और बर्फबारी
इस साल जनवरी के बीच राज्य में बारिश-बर्फबारी देखने को नहीं मिली। नवंबर, दिसंबर भी सूखा ही रहा। लिहाजा जंगलों में आग लगने का प्रमुख कारण नमी की कमी है। इन बदलावों के लिए क्लाइमेट चेंज का भी हाथ है। SoFR, 2021 ने भी गलोबल फॉरेस्ट रिसोर्सेज असेस्मेंट 2020 हवाला देते हुए जलवायु परिवर्तन और जंगल की आग के बीच संबंध को स्वीकार किया।
हिमालयी समाजों और पर्यावरण पर अध्ययन करने वाले डॉ. शेखर पाठक कहते हैं कि, ”नवंबर दिसंबर के महीने में वन विभाग के अधिकारी जंगलों में फायर लाइन बनाते थे जिसमें चीड़ के पत्तों को हटाने का काम होता था। लेकिन इस प्रक्रिया में काफी ढुलमुल रवैया अपनाया जा रहा है जिसका परिणाम हम सबके सामने हैं।
आग लगने की घटनाओं के पीछे मानवीय दखल भी एक कारण
यही नहीं उत्तराखंड के जंगलों में आग हर साल आने वाली ऐसी आपदा है जिसमें इंसानी दखल मुख्य कारण माना जाता है और इस बार भी कुछ ऐसा हुआ है। रुद्रप्रयाग से तीन लोगों को गिरफ्तार भी किया गया है। आरोप है कि वो जंगल में आग लगाने की कोशिश कर रहे थे। तो क्या ये आग इस पहाड़ी राज्य के लिए नियति बन चुकी है, या अनदेखी की विडंबना ? आग की भयावहता देख ये सवाल जेहन में सबसे पहले कौंधेते हैं। भारत के पर्यावरण मंत्रालय के अंतर्गत आने वाले वन अनुसंधान संस्थान यानी फॉरेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट की 2019 की रिपोर्ट के अनुसार, 95% जंगल की आग मानवीय भूल की वजह से होती है। अक्सर ग्रामीण जंगल में जमीन पर गिरी पत्तियों पर या सूखी घास पर आग लगा देते हैं ताकि उसकी जगह पर नई घास उग सके। ये आग भड़क जाने पर बेकाबू होती जाती है और फिर विकराल रूप ले लेती है।
ज्यादा पलायन भी एक कारण
टूरिस्ट भी कई बार जलती हुई सिगरेट या दूसरे पदार्थ जंगल में फेंक देते हैं। उपर तो मौसम के बदलते तेवर, एडमिनिस्ट्रेशन लेवल पर हो रही लापरवाहियां जंगलों में लगती आग का मुख्य कारण है। लेकिन शेखर पाठक कहते हैं कि सामाजिक जीवन में आया बदलाव भी इन घटनाओं में अहम भूमिका निभाता है।पहले ग्रामीण जीवन जंगलों पर सीधे तौर पर निर्भर था लेकिन पलायन इतना ज्यादा हुआ है कि पहाड़ के आसपास अब कोई नहीं रहता है। स्थानीय लोगों का जंगलों से लगाव भी लिहाजा कम हो गया है। ऐसे में जब जंगलों में आग लगती है तो ना उसे कोई देखने वाला होता है और ना ही उसे कोई बुझाने की सोचता है।
क्या बारिश ही है एकमात्र विकल्प ?
गर्मी के दिनों में सूखा मौसम होने के कारण ये समस्या और भी विकराल हो जाती है। अब जब तक बारिश नहीं होगी तब तक सारे प्रयास अधूरे ही साबित होंगे। दुर्गम और पहाड़ी रास्ते की वजह से आग बुझाने के प्रयास और भी कठिन हो जाते हैं। पर्यावरणविद पूरण चंद्र तिवारी कहते हैं कि आग लगने की वजह जो है उसमें सबसे प्रमुख ये है कि पहले जो ग्रामीणों को अधिकार मिले थे उसे छीन लिए गए। जिसकी वजह से गांव वालों का सहयोग बहुत कम हो गया है। दूसरी वजह यह है कि आग बुझाने का जो पुराना सिस्टम है वही फारेस्ट विभाग अपना रहा है। उन्होंने कहा कि तीसरी वजह ये है कि लोग भी आग लगाने में सहयोग कर रहे हैं। अपने आप ये आग नहीं लग रही।