
संजय शर्मा

देहरादून। उत्तराखंड के पहाड़ी जिलों में पिछले कुछ वर्षों में मानव–वन्यजीव संघर्ष तेजी से बढ़ा है। आए दिन भालू, तेंदुआ या जंगली सूअरों के हमलों की खबरें सामने आती रहती हैं, जिससे ग्रामीण भय और असुरक्षा के माहौल में जीने को मजबूर हैं। ऐसे में सवाल उठता है—क्या इस समस्या का कोई वैज्ञानिक और व्यवहारिक समाधान है?

विशेषज्ञों के अनुसार, कनाडा का ‘कम्युनिटी सेफ्टी मॉडल’ उत्तराखंड के लिए एक मजबूत विकल्प बन सकता है।
कनाडा जैसे देशों में भालू और अन्य वन्यजीवों की संख्या अधिक है, लेकिन मानव–मृत्यु की घटनाए बेहद कम होती हैं। इसका मुख्य कारण है सरकारी योजना, जागरूकता और सुरक्षा उपकरणों का अनिवार्य उपयोग। कनाडा के कई प्रांतों में ग्रामीणों को बेयर स्प्रे, एयर हॉर्न, भालू रोधी डस्टर और सुरक्षा प्रशिक्षण सरकार द्वारा उपलब्ध कराए जाते हैं। स्कूलों, पंचायतों और कम्युनिटी सेंटरों में यह प्रशिक्षण नियमित रूप से दिया जाता है कि खतरनाक जानवर दिखने पर कैसे प्रतिक्रिया करनी है, कैसे आवाज़ें निकालकर उन्हें दूर रखना है और कैसे हमले से पहले भागने का मौका बनाना है।
उत्तराखंड में क्या अपनाया जा सकता है?
• जिलों में सुरक्षा उपकरण किट—जिसमें फॉग हॉर्न, सायरन, टॉर्च, और जैविक रिपेलेंट शामिल हों। प्रत्येक ग्राम पंचायत को उपलब्ध कराई जा सकती है।
• कनाडा मॉडल पर आधारित ट्रेनिंग प्रोग्राम: विद्यालयों, आंगनबाड़ी केंद्रों और ग्रामीणों को यह सिखाया जाए कि भालू या तेंदुआ दिखने पर सही प्रतिक्रिया क्या हो।
• कम्युनिटी वॉच ग्रुप का गठन, जो जंगल की सीमा से लगे गांवों में रात के समय निगरानी रख सके।
• रास्तों और जंगल से लगे क्षेत्रों में अलार्म-आधारित सौर लाइटें स्थापित की जाएँ, जो जानवरों को प्रवेश से पहले ही रोक दें।
• सरकार द्वारा दुर्घटना-प्रभावित परिवारों के लिए त्वरित राहत और बीमा नीति बनाई जाए, जैसा कनाडा में होता है।
यदि उत्तराखंड सरकार कनाडा जैसे वैज्ञानिक, प्रशिक्षित और समुदाय-आधारित मॉडल को अपनाती है, तो निश्चित ही मानव–वन्यजीव संघर्ष को काफी हद तक कम किया जा सकता है। यह न सिर्फ ग्रामीणों की जान बचाएगा, बल्कि मनुष्य और प्रकृति के बीच संतुलन भी कायम करेगा।
