
चमोली ने विशेष सत्र में चर्चा के दौरान मूल निवास व गैरसैंण पर झकझोरा

कहा,उत्तराखण्ड को धर्मशाला बना दिया, पहाड़ी मुंह ताकता रह जाता है
रजत जयंती साल के विशेष सत्र में दिखी जनमुद्दों की गर्मी, अफसरों की मनमानी भी बनी मुद्दा
पहाड़ का सच देहरादून। राज्य गठन के रजत जयंती साल में उत्तराखण्ड विधानसभा के विशेष सत्र के दूसरे दिन कई बुनियादी व राज्य हित से जुड़े मुद्दों पर विधायकों ने बेबाकी से अपने मन की कही। पहाड़,मैदान के उठे शोर ने तीखी बहस का मौका दे दिया।

सदन में विकास के रोडमैप, भ्र्ष्टाचार, मूल निवास, भू कानून, पलायन, स्थायी राजधानी गैरसैंण, परिसीमन, अतिक्रमण, स्वास्थ्य,शिक्षा व अधिकारियों की मनमानी समेत कई अन्य सवालों की गूंज रही।बीते सालों में जमीनों की खरीद फरोख्त का मुद्दा भी खूब गरमाया। कहा गया कि बेलगाम तरीके से जमीनों की खरीद फरोख्त होती रही।

सत्र के पहले दिन नेता विपक्ष यशपाल आर्य ने अधिकारियों के निरकुंश रवैये और पलायन पर सदन का ध्यान खींचा तो उप नेता भुवन कापड़ी ने विधायक निधि पर 15 प्रतिशत कमीशन लिए जाने पर अधिकारियों को कठघरे में खड़ा किया। राज्य गठन में कांग्रेस व भाजपा ने क्रमशः सोनिया गांधी, नारायण दत्त तिवारी और अटल बिहारी वाजपेयी की भूमिका का बारम्बार जिक्र किया। .सदन में कई बार तीखी नोक झींक भी देखने को मिली तो कई बार हंसी के फव्वारे भी छूटे। भाजपा विधायक बंशीधर भगत व आर्य के बीच हुई जुबानी ‘जंग’ भी माहौल को हल्का फुल्का कर गयी।हालांकि, संसदीय कार्यमंत्री सुबोध उनियाल ने 25 साल के रोडमैप पर चर्चा की शुरुआत करते हुए सभी दलों की भूमिका का उल्लेख करते हुए सकारात्मक चर्चा पर जोर दिया। कांग्रेस व भाजपा विधायक कुछ मुद्दों को लेकर पार्टी लाइन से अलग हटते हुए बेबाक नजर आए।
मंगलवार को कुछ कुछ ऐसा ही नजारा देखने को मिला। जब भाजपा विधायक व आंदोलनकारी विनोद चमोली ने मूल निवास के मुद्दे को उठाते हुए सदन ही नहीं पूरे प्रदेश को गर्मा दिया। इस मुद्दे पर उत्तराखंडी व पहाड़ बनाम मैदान की हवा घुलते ही हरिद्वार जिले से जुड़े कांग्रेसी नेता विधायक भी अपनी सीट से उठ खड़े हुए। बसपा विधायक शहजाद ये कहते सुने गए कि हरिद्वार से पहाड़ के तीन नेताओं को सांसद व एक को विधायक चुना है इनमें बाहरी प्रदेश के रहने वाले खानपुर के विधायक उमेश कुमार शर्मा भी शामिल हैं।
भाजपा विधायक चमोली ने कहा कि उत्तराखंड को धर्मशाला बना दिया गया है। दस-पन्द्रह साल पहले आये लोग उत्तराखण्ड में पैसे कमा रहे हैं और यहां का पहाड़ी मुंह ताकता रह जाता है। भाजपा विधायक ने कहा कि राज्य की लड़ाइ लड़ने के बाद, आज उन्हें सुनना पड़ रहा है कि आखिर मूल निवास की अवधि क्यों तय नहीं हुई। क्या यह पहली निर्वाचित कांग्रेस सरकार को तय नहीं करना चाहिए था। असली दोषी कौन है?
उन्होंने कहा कि साफ है कि यदि बाहर के लोगों को सहजता से राज्य की भूमि-संपदा, रोजगार आदि में पहुँच प्राप्त हो जाए, तो मूल निवासियों का हित प्रभावित होगा। चमोली ने कहा कि आज लोग सड़कों पर चिल्ला रहे हैं। साथ ही यह भी कहा कि जिन लोगों ने उत्तराखंड का नाश मारा और चौराहे पर खड़ा किया। आज उनको भी मजबूरी में सुनना पड़ रहा है।
भाजपा विधायक विनोद चमोली ने सदन में “मूल निवास प्रमाणपत्र” तथा उसके मानदंडों पर सवाल उठाते हुए कहा कि राज्य में मूल निवास का स्पष्ट कानून हो, “कट-ऑफ डेट” तय हो।उन्होंने कहा कि हर राज्य में मूल निवास की स्पष्ट नियमावली है लेकिन उत्तराखण्ड में मूल निवासी किसे माना जाय,इस पर असमंजस बना हुआ है। मूल निवास प्रमाणपत्र के अलावा ग्रीष्मकालीन राजधानी गैरसैंण में मिनी सचिवालय स्थापित नहीं होने पर भी नाराजगी जताई। उन्होंने कहा कि गैरसैंण में अपर मुख्य सचिव स्तर का अधिकारी क्यों नहीं तैनात किया गया।
भाजपा विधायक विनोद चमोली ने मैदानी क्षेत्रों में मूल निवास की प्राथमिकता के मुद्दे को भी उठाया। साथ ही मूल निवास व भू कानून के मुद्दे पर प्रदेश में जारी आंदोलन को भी समय की मांग करार दिया। तय नीति के तहत चमोली को कृषि पर बोलना था लेकिन वे मूल निवास और गैरसैंण पर तय अवधि से अधिक 30 मिनट तक धाराप्रवाह बोलते रहे। और सदन एकाग्र होकर सुनता रहा।
हालांकि, मूल निवास के मुद्दे , उत्तराखंडी कौन और हरिद्वार जिले के उल्लेख पर कांग्रेस विधायक अनुपमा रावत व अन्य विधायकों ने पुरजोर विरोध किया।
स्पीकर ऋतु खंडूड़ी व संसदीय कार्य मंत्री उनियाल के हस्तक्षेप से हंगामा व गर्मी शांत हुई। लेकिन भाजपा विधायक व राज्य आंदोलनकारी विनोद चमोली के मूल निवास, भू कानून, चकबंदी, बंदोबस्त, गैरसैंण जैसे बुनियादी व ठोस सवाल उठाकर भविष्य के 25 साल के रोडमैप की दिशा तो तय कर ही दी। जनभावनाओं से जुड़े इन मुद्दों के सदन में उठने से प्रदेश के सामाजिक व राजनीतिक अंचल में सुनामी की आहट भी सुनाई देने लगी है…
जनता के सवाल
राज्य गठन के बाद उत्तराखण्ड में “मूल निवास / स्थायी निवास” का प्रश्न वर्षों से गरमाया हुआ है। किसे राज्य का मूल निवासी माना जाए, भूमि-खरीद पर बाहर वालों की सक्रियता, रोजगार-प्राथमिकता आदि मुद्दे लगातार उठते रहे हैं।
क्या है “मूल निवास” का मुद्दा?
“मूल निवास” का मतलब है कि राज्य-निर्माण के समय या उससे पहले उस राज्य के भू-क्षेत्र में किसे रहने का अधिकार था, किसे उस राज्य का मूल निवासी माना जाए।
उत्तराखण्ड में यह सवाल इसलिए जटिल हुआ क्योंकि राज्य बनने से पहले बाहर से लोगों का प्रवाह, भूमि-खरीद और व्यवसाय गतिविधियों का विस्तार हुआ था। लोगों का दावा रहा कि उन्हें भी मूल निवासी माना जाए।
हाईकोर्ट ने 2012 में कहा कि “9 नवंबर 2000 यानी राज्य गठन के दिन जो व्यक्ति राज्य की सीमा में था, उसे मूल निवासी माना जाए” – यह कट-ऑफ डेट सरकार द्वारा अपनाई गई थी।
अन्य राज्यों में अधिकांशत: 1950 या उसके आसपास की तारीख को आधार माना गया है।
इसलिए इस मुद्दे में तीन बातें जुड़ी हुई हैं: (i) कानून एवं नियमावली, (ii) भूमि-खरीद / भू-उपयोग नीति, (iii) रोजगार व संसाधन-प्राथमिकता।
भविष्य की चुनौतियाँ
भूमि-खरीद, भू-उपयोग, उद्योग एवं पर्यटन विकास और मूल निवासी-सुरक्षा के बीच संतुलन बनाना चुनौती रहेगा।
यदि इस विषय को समय रहते हल नहीं किया गया, तो सामाजिक असंतोष, आंदोलन और राजनीतिक लाभ-हानि की संभावनाएँ उजागर हो सकती हैं।
मीडिया एवं जनमत का दबाव कहीं अधिक तेज होगा । बीते साल में ‘मूल निवास और भू-कानून’ को लेकर प्रदेश के कई हिस्सों में जनरैलियाँ हुई थीं।
राज्य-निर्माण के 25 वर्ष बाद जन भावनाओं से जुड़े संवेदनशील मसले — “मूल निवास”,परिसीमन व गैरसैंण को लेकर उठी आवाज यदि सही रूप से आगे बढ़े तो यह राज्य के सामाजिक-भू-राजनीतिक ढांचे को प्रभावित कर सकता है। कांग्रेस के लखपत बुटोला ने विधानसभा सीटों के परिसीमन से पर्वतीय क्षेत्र को विधानसभा सीटों के हुए नुकसान पर चिंता जताई। और 2001 कि जनसंख्या के आधार पर परिसीमन की बात कही।(साभार)
