राजनीतिक दलों के लिए सामाजिक एजेंडे की कोई अहमियत नहीं ।
चुनाव तक सिमट गई है लीडरशिप, आयाराम, गयाराम की पनप रही संस्कृति
हरीश जोशी, पहाड़ का सच
दावे भले ही बड़े किए जाते हों किंतु राजनीतिक दलों में संगठन का आधार माने जाने वाला सामाजिक एजेंडा लगभग गायब हो गया है। लीडरशिप का मतलब सिर्फ कुर्सी व पद हासिल करने तक रह गया है।
उत्तराखंड कांग्रेस में एक जिलाध्यक्ष की नियुक्ति के मामले में अनुशासनहीनता का खुला प्रदर्शन इसी प्रवृत्ति की ओर इशारा करता है। उत्तराखंड कांग्रेस में हरिद्वार जिले के एक अध्यक्ष को लेकर मचा बबाल, इस किस्म का कोई नया बबाल नहीं है। अक्सर कांग्रेस में इस तरह के किस्से सरेआम नुमायां होते रहे हैं। उत्तराखंड कांग्रेस में दो दशक पहले मुख्यमंत्री के रूप में पंडित नारायण दत्त तिवारी की ताजपोशी के समय हुआ बबाल सभी ने देखा। भले ही तिवारी कांग्रेस के वरिष्ठ और अनुभवी नेता थे किंतु पार्टी में विरोध उनका भी हुआ । बेशक विरोध को दबाने में तिवारी सफल रहे और पांच साल तक सीएम की कुर्सी पर काबिज रहे। उनके द्वारा सत्ता संतुलन साधने के लिए किए गए उपायों से आर्थिक संसाधनों का दोहन करने वालों की बाढ़ आ गई थी।
कालांतर में कांग्रेस में कई ऐसी घटनाएं हुईं जिनमें सांगठनिक मतैक्य से अधिक गुटीय संघर्ष अधिक दिखाई दिया। 1 अप्रैल को देहरादून में कांग्रेस भवन में पार्टी अध्यक्ष के साथ बदसलूकी को गुटीय संघर्ष के रूप में देखा जा रहा है। पार्टी के अंदरूनी सूत्रों का कहना है कि वर्षो से पदों पर काबिज लोगों को हटाने से एक गुट विशेष के लोग नाराज हैं और 1 अप्रैल की घटना उसी नाराजगी का नतीजा है।
कांग्रेस संगठन में अहम पदों पर ऐसे लोग भी काबिज हैं जो हमेशा विवादित रहे हैं। उनकी जांच परख करने वाला कोई नहीं है। यानी कार्यकर्ताओं से फीड बैक लेने का सिस्टम लगभग समाप्त हो गया गई। कुल मिलाकर ” दुल्हन वही जो पिया मन भाए “। पार्टी सोशल एजेंडे को कभी भी अमल में नहीं लाती है। सोशल एजेंडे के आधार पर मजबूत संगठन का निर्माण अब राजनीतिक दलों के वर्क प्लान का हिस्सा नहीं रहा। इसकी कमी अक्सर देखी जा रही है। संगठन में व्यक्तियों का चयन कामकाज के आधार पर नहीं हो रहा है चूंकि सामाजिक एजेंडा है ही नहीं। व्यक्ति विशेष के चयन के लिए पार्टी ने आज तक ऐसा कोई सिस्टम तैयार नहीं किया है जो सही चयन का पैमाना निर्धारित कर सके।यहीं से सत्ता या संगठन पर काबिज रहने के लिए गिरोह बंदी शुरू हो जाती है और हर कोई लीडरशिप को अपने मुताबिक इस्तेमाल करना चाहता है।
इस गिरोह बंदी का प्रभाव समूची पार्टी पर होता है। नतीजतन चुनाव के समय सिर्फ लीडरशिप दिखती है,पार्टी कहीं नहीं दिखती। पदों के बटवारे हो या विधानसभा चुनावों में टिकट वितरण, कांग्रेस के आपसी झगड़े कम होने के बजाए बढ़ते जा रहे हैं। पदों पर काबिज होने का संघर्ष निरंतर जारी है। किसी भी तरह नाम के साथ पद की मुहर लग जाए तो चुनाव में टिकट मिलने में आसानी। उत्तराखंड कांग्रेस में कई ऐसे चेहरे हैं जो कांग्रेस का मूल कार्यकर्ता नहीं है। किसी की आमद किसी मुख्यमंत्री के साथ हुई है,कोई किसी मंत्री के साथ कांग्रेस में शामिल हुआ तो कोई दलबदल करने वालों के साथ कांग्रेस की पटरी पर चढ़ गया। ऐसे लोग बड़े पदों पर काबिज रहना चाहते हैं और कई लोग अपने इस मिशन में सफल भी हुए हैं। इसी कारण कांग्रेस का मूल कार्यकर्ता निष्क्रिय होता जा रहा है।
*अनुशासनहीन लोगों के खिलाफ होगी कार्रवाई*
प्रदेश कांग्रेस कमेटी के उपाध्यक्ष संगठन मथुरा दत्त जोशी ने कहा कि 1 अप्रैल को pcc अध्यक्ष के साथ बदसलूकी को गंभीरता से लिया जा रहा है। ये अनुशासनहीनता है और इसमें शामिल लोगों को खिलाफ सख्त कार्रवाई होगी। जोशी ने कहा कि 26 जिलाध्यक्ष बदले गए हैं। रुड़की के अलावा किसी दूसरी जगह से विरोध नहीं हुआ है। जो लोग किसी वर्ग विशेष के व्यक्ति को अध्यक्ष बनाने की मांग कर रहे है उन्हे मालूम होना चाहिए कि इससे पहले उसी वर्ग के व्यक्ति को अध्यक्ष बनाया गया था।