पहाड़ का सच देहरादून।
क्लेमेनटाउन का वह इलाका जहां कभी लोग चैन और शांति के साथ रहते थे, अब वहां बंदरों का आतंक है। हर गली, हर घर पर बंदरों की जमात कब्जा जमाए हुए है। बंदर न केवल लोगों की दिनचर्या को बाधित कर रहे हैं, बल्कि उनकी जान-माल को भी नुकसान पहुंचा रहे हैं।
स्थानीय निवासी व उत्तर भारत लाइव समाचार पत्र के संपादक आशीष ध्यानी का कहना है कि बच्चों से लेकर बुजुर्गों तक, हर व्यक्ति बंदरों के आतंक से सहमा हुआ है, लेकिन प्रशासन ने अपनी आंखें मूंद रखी हैं। बंदरों ने लोगों का सामान्य जीवन छीन लिया है। वे घरों में घुसकर राशन और बर्तन तोड़ देते हैं। महिलाओं के हाथों से सामान छीनना और खेलते बच्चों और सड़क चलते लोगों को डरा रहे हैं। घर की छतें जो कभी खेल-कूद और आराम के लिए इस्तेमाल होती थीं अब खतरनाक बन चुकी हैं।
उनका कहना है कि लोग छतों पर जाने से डर रहे हैं क्योंकि बंदरों का झुंड कभी भी आ सकता है चूंकि बंदर आक्रमक भी हो गए हैं।स्थिति यह हो गई है कि बच्चों को घर से बाहर खेलने नहीं दिया जा रहा। स्कूल जाने वाले बच्चे सहमे रहते हैं कि कब बंदर उनके बैग छीन लें या उन पर हमला कर दें। कई बार तो बंदर कचरे में खाना ढूंढते-ढूंढते घर के अंदर तक घुस जाते हैं। महिलाओं को बाजार जाना तक मुश्किल हो गया है। कई बार बंदरों ने उनके हाथ से थैले छीन लिए और उन्हें चोट पहुंचाई।
प्रशासन की इस लापरवाही ने लोगों के गुस्से को भड़काया है। जिम्मेदार यह कहकर पल्ला झाड़ लेता है कि उनके पास संसाधन नहीं हैं। नगर निगम बंदरों की बढ़ती संख्या को नियंत्रित करने के लिए कोई योजना नहीं बना रहा। जिम्मेदारों के यहां से सिर्फ आश्वासन है, लेकिन कार्रवाई के नाम पर कुछ नहीं। बंदरों की नसबंदी या उन्हें जंगलों में वापस भेजने की योजना लगता है अब तक कागजों में ही सीमित है। प्रशासन की यह सुस्ती लोगों के धैर्य की परीक्षा ले रही है।
अब सवाल यह है कि क्या प्रशासन किसी बड़े हादसे का इंतजार कर रहा है? क्या जनता को इसी खौफ में जीने के लिए छोड़ दिया गया है? क्लेमेनटाउन के लोग अब जवाब चाहते हैं। बंदरों के आतंक से मुक्ति दिलाने की जिम्मेदारी किसकी है? डीएम साहब, अगर जनता की सुरक्षा आपकी प्राथमिकता है, तो अब वक्त आ गया है कि आप इस समस्या का समाधान निकालें। बंदरों का आतंक प्रशासन की नाकामी का प्रतीक बन चुका है।